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इंडिया गेट की सैर ।

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दोस्तो ,दिल्ली की अजीब दास्तां है । सच मे किसी ने कहा है दिल्ली में दिल तो है ही नही अगर कुछ है तो भागादौड़ी ।

अगर दिन की शुरुआत करें तो देखते है लोग केवल और केवल भागते नजर आते है शायद कोई रितेदार भी मिल जाये तो कुशल क्षेम पूछने की फुरसत नही ……

अब इसी भागदौड़ भरे जीवन के कुछ पलों में खुद को मनोरंजन करने हम इंडिया गेट पहुचे । हम लोग कश्मीरी गेट से समय शाम 7 बजे मेट्रो से पीली लाइन के पटेल चौक मेट्रो स्टेशन पहुचे जहाँ से गेट न 3 से बाहर निकलकर जाना था और यहाँ से इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन  ठीक बीच मे पड़ता है । खैर वहाँ तक का सफर हमलोगो ने पैदल ही सफर किया । रास्ते मे दोनों तरफ हरी भरी घास और कुछ खूबसूरत पौधे जिनसे मनमोहक सुगंध वातावरण को सौंदर्य की अनुभूति करा रहा था ।

इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की दूरी लगभग 2.5 km की है पर इतनी दूरी देखने मे तो कम लगती है पर चलते चलते लोग थक जाते है । गनीमत था कुछ घंटे पहले बारिश हुई थी इसकी वजह से मौसम सूहाना हो चुका था और फिर रास्ते मे लोगो का आना जाना देखकर हम लोग इंडिया गेट पहुँच ही गए ।

वहाँ के बारे में क्या कहना ,शाम के वक़्त हजारो हजार की संख्या में लोग वहां अपने परिजनों व दोस्तो के साथ पहुचते है ,लाइटिंग की अच्छी व्यवस्था बहूत ही अच्छी थी । बच्चो के मनोरंजन के लिए कार व मोटरसाइकिल वहाँ मौजूद रहती है जो बच्चो के लिए बेहद खास साधन है, साथ ही गुबारे और  लाइट जलते सिंग भी लड़को को खूब भाते ही ।

वयस्क लोग वहाँ सेल्फी लेने में व्यस्त दिखाई पड़ते थे और उन सब के बीच हम लोग भी बहुत सारे फ़ोटो सूट किये । हमारे कविवर राम शरण जी ने अपने कला का प्रदर्शन करते हुए 20-25 फ़ोटो खिंचे जो वाकई बेहद सुंदर और आकर्षक है । हम दोस्तो का विचार आया कि इस शुभ समय पर क्यों न fb लाइव आकर इंडिया गेट के बारे में दो शब्द कह ले फिर मिलकर पहली बार fb live पर आकर बहुत ही अच्छा महसूस किए ।

इंडिया गेट का सुप्रसिद्ध झालमुढ़ी का भी हमलोगों ने मिलकर आनंद उठाया। वहाँ सुरक्षा के लिए तैनात जवानों को देखकर दिल मे देश भक्ति और भारत के गौरवशाली इतिहास पर इतिहासकर व कविवर राम शरण जी ने प्रथम विश्वयुद्ध में मारे गए भारतीयों के प्रति अपनी श्रद्धा सुमन अर्पित कर उसके बारे में चर्चा किए।

वहाँ से वापिस लौटते समय रात के 10 बज गए थे वापिस आकर पटेल चौक मेट्रो स्टेशन के बाहर ही कुछ देर विश्राम किये तब तक खबर मिली कि मेट्रो किसी कारणवश कुछ समय के लिए बंद है । लगभग20 मिनट वहाँ गुजारने के बाद हम लोग 10.30 बजे तक रूम वापिस आये।।आने के ततपश्चात हम लोगो ने इंडिया गेट के बारे में कुछ जानने कि प्रयास किया कि क्योँ इंडिया गेट बनाना अतिआवश्यक समझे सर् हार्वर्ड लूटियन ने का कहना था कि इंडियन फौज हमारे तरफ से प्रथम विश्व युद्ध मे लड़ते हुए प्राणों की आहुति दिया उनकी बलिदानो की याद रखने के लिये सर् हार्वर्ड लूटियन ने इसकी निब रखी आज के दौर में

*मेरी रूह*

* मेरी रूह *
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मेरी रूह बसती है उस दुवार पर,
जहाँ रोज सुबह के आठ बजे सुकुरती डेरा डालती है। और जब वो पूँछ हिलाते हुए पहुँचती है, तो माँ कहती है

“जा एगो रोटी दे दऽ, बेचारी भूखाइल होई”

मेरी रूह बसती है उस घर में,
जहाँ पेट भरने के बाद भी माँ जबरदस्ती अपने हाथों से ठूँस-ठूँस कर खाना खिलाते हुए कहती है..

“खा ल, काहे काहे चिंताऽ करत बाड़ऽ!, तहरा कमाई के आसरा नइखे”

मेरी रूह बसती है वहाँ,
जहाँ एक गइया है जो सुबह-सुबह खाने के लिए मकई की टाटी पर पूँछ पटकती है और लेट होने पर अलार्म के तौर पर रंभाती है।

मेरी रूह बसती है उस खलिहान में,
जहाँ हम बचपन में क्रिकेट और बॉलीबाल खेलते थे। इस दौरान खेल गेंद किसी के पाथे हुए गोबर में चले जाने से उसे कचटने पर गालियाँ सुनकर हँसते थे।

“तब ना तो कोई अदब था और ना ही कोई गुरुर”

मेरी रूह बसती है ब्रह्म बाबा स्थान में,
जहाँ मेरा बचपन घोड़ा बैठने, लट्टू, गोली, चीका, कबड्डी खेलने में गुज़रा। वहाँ जब बारिस होती, तो बेंग की आवाज सुनने के लिए टाइम निकाल लेते और फुरसत से कागज की नाव बनाते।

” पूरे गाँव का आस्था और भक्ति का केन्द्र है”

मेरी रूह बसती है उस आँगन में,
जहाँ होली के दिन पंकजवा भाँग खाके अपना भउजी पर रंग से जादा गोबर उड़ेलकर होली खेलता था।

“तब ना आपस में बैर था, न कोई आशंका”

मेरी रूह बसती हैं मेरे गाँव गोप भरौली,सिमरी,बक्सर में,
जहाँ कोई आलीशान बिल्डिंग नहीं हैं,
गुजर-बसर करने लायक कुछ कच्चे-पक्के-करकट-माटी के मकान, जिन तक अभी पक्की सड़क नहीं पहुँची है, सुना है वो कहीं रास्ते में हैं

” पर बसता वहाँ सुकून हैं”

:- सुजीत पाण्डेय छोटू

【विशेष आभार:- Sri Krishna Jee Pandey】

साईकिल

#आइये!

आज मैं आपको ले चलता हूँ अपने लगभग दो दशक पहले, जब मैं खुद खुद से अनजान था…!!!

चाचा जी को दहेज में साइकिल मिली थी। बिल्कुल टटका एटलस की.. चमाचम करती कागज आ प्लास्टिक के कवर से आलेपित। ……….√●

अगर गलती से गंदे हाथ से छुवा भी जाता तो डॉट सुनना पड़ता! बस अपनी जिद्द की वजह से उसकी घंटी टिन.. टिन… टिन… बजाने को मिल जाता नहीं तो आँखों से गंगा यमुना की धारा बहने लगती।

बरहम बाबा आ काली मईया के पास जाकर बतासा प्रसाद चढ़ाकर पूरे मोहल्ले में बाटे थे। तब ऐसा लगता था कि बहुत बड़ा नायाब चीज आया हैं ।

जरा सा भी पांकी(किचड़) लगता, झट धुलाई होने लगता। उस समय पच्चीस पैसे वाला शेम्पू दखिन टोला से भागकर लेकर आता और बदले में मोटन चाकलेट का डिमांड मंजूर हो जाता । धुलाई के बाद चमकाने के लिए नारियल/ सरसों तेल लगाया जाता था।

उस समय लोग साइकिल के बड़े शौकीन थे। उसके हेंडिल के मुठके में डेढ़ फीट के रंग-बिरंगी वाला झालर अभी भी पूरी तरह से याद हैं। गाँव के रामनिवास जादो की साइकिल में जितना सिंगार था किसी और के साईकिल में नहीं थी और उस समय वे गाँव के रईस लोगों में गिने जाते थे। पहले छोटे गाँवो में आठ-दस साइकिल वाला आदमी बहुत बड़ा हैसियत का माना जाता था। बारात में ललकि गमछी आ साइकिल की रैली लगता और जब सामियाना में पहुँचता तो बारातियों का स्वागत विशेष रूप से होता ।

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लड़कियों और महिलाओं के गीत में भी इसका विशेष योगदान था ।
“सायकिल के टूटल बा चैनवा गिरल बा सजनावा, ऐ सखी!”

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जब खरिहानी में कोई नई साइकिल लाकर टिन टिन टिन टिन घंटी बजाता तो आस पास के लोग और बच्चों की भीड़ लग जाती और लोग पूछते….

“कतना पैसा लग गया कमलेश….”

कमलेश :- चाचा,, अब मत पूछिये। बाबु रिटायर हुए तो खरीदा गया नहीं तो ई बस में कहाँ थी। बचपन से ही शौख था कि हमरी भी एक साइकिल होती! बस आज पूरा हुआ हैं।

साइकिल के दोनों मोटर गार्ड के निचले हिस्से में लगाया जाने वाला सिंगार भी कहाँ भूले हैं। वह जिसपे अमीर खान, गोविन्दा, सलमान खान या करीना भा एश्वर्या राय ही खिलखिलाती तस्वीर लगी होती और लिखा होता।

“दिल तो पागल है!”
हम आपके हैं कौन?
“जिद्दी आशिक….”

और पता नहीं क्या क्या… भूल रहा हूँ ।

साइकिल के सीट के ऊपर लगने वाले सीट कभर की भी सेमरी स्टैंड पर चार पाँच दुकान होती और उसमें भी चार पांच अलग-अलग कैटेगरी…..

यार! असली चीज तो भूल ही रहा हूँ… वह क्या बोलते हैं रिंग में लगने वाला वो रंग-बिरंगी गोटियाँ, जो साइकिल के चलने पर रिंग के स्कोप के ऊपर से नीचे जाती और एक अलग ही संगीत का अनुनाद करती और संगीत से सबको चकित कर देती! मैंने भी पहली बार देखा था जब दोनों हाथ फैलाकर मुनवा के साइकिल के आगे खाड़ होकर साईकिल रुकवा दिया और समझा कि इतना सुनदर आवाज कहाँ से निकलता हैं।

खैर, आज के दौर में साइकिल की नई प्रजातियाँ आ गई और गाँव-देहात से लगभग खत्म ही हो गई। लगभग ज्यादातर साइकिल भुसहुल में पड़ी मिलती हैं जो अपनी चलने की आस तोड़ चुकी होती हैं। लेकिन अभी भी बड़े-बड़े शहरों में खूब चलती हैं और लोग इसका नाम देते हैं… #साइकिलिंग…….

इंडिया गेट पर अक्सर साइकिल पे सवार विदेशी या रिहायसी कॉलोनी के लोग मिल जाते हैं और वे स्वस्थ रहने के लिए यूज में लाते हैं ।

दिल्ली मेट्रो के तरफ से भी प्रदुषण मुक्त दिल्ली के लिए साइकिल की व्यवस्था कुछ स्टेशनों पर हैं,जहाँ दस रुपये प्रति घंटे के हिसाब से साइकिल मिल जाती हैं।
..

..समाप्त
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सुजीत पाण्डेय छोटू
गोप भरौली, सिमरी, (बक्सर)

ललकी गमछी

#ललकी_गमछी
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ललकी गमछी बड़ी काम की
ख्याति इसकी गजब नाम की।

सर पे रखो तो ताज हैं,
समाज का मान-मरजाद है।

गले में रखो तो हार हैं,
भोजपुरिहा का उपहार हैं ।

बोझ सहने में सहायक हैं,
सुखद, सहज और लायक हैं ।

कमर में बाँधों कमरबंद बनती हैं
फुरती, साहस और जुनून भरती हैं ।

नहाने के बाद मुख्य जरूरत हैं,
सोचो इसकी कितनी अहमियत हैं ।

ज़ख्म को बाँधने में सहायक हैं,
बोझ बाँधने में भी एकदम लायक हैं ।

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sujit1992.blogspot.com

लाल किला की सैर ।

दरअसल, जिंदगी में नए नए दोस्तों का आना जाना लगा रहता हैं। बचपन में लट्टू, गुल्ली-डंडा, गोली और लुका-छिपी जैसे बहुत सारे खेल बिना किसी जिंदगी की परवाह के गुजार लेते है। कुछ साल बाद धीरे-धीरे सब छूटते जाते है ।

ऐसे ही एक दोस्त है रविन्द्र दुबे, जो 2009 में जॉब के बाद पहली बार मिले, उन्होंने कल फ़ोन किया।

“सुजीत, कल मै आ रहा हूँ । कही घूमने चला जायेगा।

अगली सुबह ड्यूटी थी, कुछ असमंजस में था कि कही ऐसा न हो, ड्यूटी की वजह से मैं उनका सपना साकार करने में पीछे रह जाऊ ।

शहरों में अक्सर एक समस्या आती है। कोई भी आदमी बिना काम का नहीं है और दूसरी बात कार्य मे व्यस्त होने की वजह से अगर सही वक्त पर फ़ोन नहीं उठाये तो सामने वाला के मन में क्या क्या प्रश्नचिन्ह उमड़ पड़े, कहना मुश्किल है ।

सुबह उनका दिल्ली आगमन हुआ और डयूटी की वजह से कुछ समय उनका मैंने बर्बाद जरूर किया, उसका मुझे खेद रहा ।

दरअसल इस साल अब तक मैं मुगल गार्डन नहीं घूम पाया था तो एकाएक दिमाग मे आया, मुगल गार्डन चलते है । फटाफट मोबाइल में गार्डन बंद होने की अंतिम तिथि निकाले तो पाया कि 06.03.2018.पढकर बहुत खुश हुआ कि चलो अंतिम समय ही सही घूम तो लेंगे वरन पूरे साल अफसोस रह जाएगा। पिछली बार मुगल गार्डन हम सब पहुँचे थे, क्या गजब का नजारा था ! खूबसूरत बगीचे और उनमें लगा हुआ फूलों की खुश्बू अपने पहचान से बखूबी एहसास करा रही थी, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पहुँचते ही अलग अलग की खुश्बू, संगीत पे पानी के फव्वारों का मनमोहक नृत्य……..

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सो हम लोग चार आदमी हो लिए और नई दिल्ली से केंद्रीय सचिवालय के लिए मेट्रो पकड़े ही थे। पटेल चौक मेट्रो पहुँच चुके थे कि एक बार पुनः मोबाइल में अन्तिम तिथि देखने का मन किया, ऐसी सोच हमारे लिए अशुभ संकेत था। मुगल गार्डन की खुले रहने का आखिरी समय शाम 04.00 बजे था । अब हमलोग अवाक रह गये और हताश निराश, स्वप्नों की उल्लास क्षण भर में उल्टी गंगा बहने को मजबूर कर गई । आखिरकार हमलोग अपना मुँह लाल किला की तरफ कर लिए ….

लाल किला के सामने से मैं लगभग दस बार से ज्यादा गया होगा, चाहे चाँदनी चौक मार्केट हो या चोर बाजार, वहाँ का प्रसिद्ध शिव मंदिर हो या जामा मस्जिद पर भीतर एक बार ही घूम पाया था।

सघन जाँच पड़ताल चल रहा था। कुल दो जगह टिकट जाँच और दो जगह सिक्युरिटी सिस्टम से निकले।

लाहौर द्वार :- लाल किला के मुख्य द्वार से भीतर घुसते ही लाहौर द्वार दिखा। लाल रेत पत्थर से बने इसका निर्माण मुगल सम्राट शाहजहाँ ने कराया था।लाल किला के अग्र भाग के बीचोंबीच देश के अभिमान, सम्मान अपनी गौरवशाली पताका लहराता देख एक सलूट किया। वाकई मुझे अपने तिरंगे को देखकर बहुत खुशी महसूस होता है ।

जय हिन्द !

छत्ता चौक :- हम अब भीतर घुस चुके थे और घुसने के साथ ही लगभग 40 मीटर की एक इमारत है जो गहरे लाल पत्थर की बनी हुई है और उसमें दोनों तरफ श्रृंगार की दुकानें लगी हुई है जिसमें चूड़ियाँ, कश्मीरी शाल, शंखा पोला, बालियां, रूमाल, टोपी और चश्मे की दुकानें लगी हुई है । कहते है कि शाहजहाँ ने पाकिस्तान के पेशावर में ऐसी इमारत देखकर इसे बनाया था ।

अब आगे निकल कर हम भारतीय पुरातात्विक संग्रहालय पहुँचे, जहाँ के लिए अलग से टिकट लेना होता है, भी टिकट चेक करा के अंदर प्रवेश किये । अस्त्रो-शस्त्रो के संग्रहालय में क्या खूब हथियारों का जखीरा देखकर अवाक रह गये ।

अब हम लोगों मुमताज महल की तरफ़ रवाना होने वाले थे, की दोस्तों ने खुबसूरत नजारा देखकर पुनः फ़ोटो लेने की इच्छा जताई ।

पुनः कदम अग्रसर हो दीवान -ए-खास की खूबसूरती को खूब निहारें, लाल बलुआ पत्थर के स्तंभों से निर्मित यह क्या खूब भा रहा था, इसकी मेहराव की इतनी सुंदर कारीगरी दिल छू लिया ।

अब अंतिम पड़ाव था, रंगमहल ।

रंगमहल के आस-पास काम चल रहा था इसकी वजह से उधर हम पूरी तरह से नहीं घूम पाये, हाँ रंगमहल के ठीक सामने एक पानी का तालाब जैसा फ़वारा लगा हुआ है जो फिलहाल बन्द हालत में मिला । उस फ़वारे रूपी तालाब के किनारें पर कुछ देर विश्राम कर वापिस लौटने लगे और मुख्य द्वार पर लौटते वक़्त दिखा एक खूबसूरत दृश्य जो ये है ।

इस तरह आज यात्रा समाप्त हुआ ।

धन्यवाद व आभार आपका 🙏🙏🙏

जय हिंद , जय भारत ।।

जय हो महान आत्मा 💐💐💐

  • उठइले ना तलवार,बरछा ना भाला
  • कइले ना लड़ाई ना उ कइले चढ़ाई
  • सीखले उहनी के भाषा आ बनले फ़क़ीर 
  • देश के आजादी में अइसन खिंचले लकीर
  • सत्य आ अहिंसा के हथियार रहे दुश्मन के ज्ञान
  • कइले भारतवर्ष के आजादी के एगो नया बिहान 
  • एहि से कहल जाले महान आत्मा  आ विद्वान 
  • करत बानी आज हम  पुण्य तिथि पर परनाम ।
  • जय हो गाँधी बाबा 🙏🏼🙏🏼💐💐💐💐
  • sujit1992.blogspot.com

मैं ही भारत हुँ 🇭🇺

एकता ही भारत है ।
मैं भारत हूँ 

मैं समृद्व हूँ

मैं सशक्त हुँ

विभिन्नता कदम दर कदम है फिर भी लौह स्तम्भ की तरह स्थिर हुँ, कायम हुँ ।

मैं सृजन हुँ

मैं रक्षक हुँ

मैं प्राणी हुँ

शांति का मूरत की तरह।
मैं ग्रीष्म हुँ

मैं शरद हुँ

मैं वर्षा हुँ

बिल्कुल संतो की तरह बसंत हुँ ।

मैं हिंदी हुँ

मैं उर्दू हूँ

मैं भोजपुरी हुँ

संस्कृत की संस्कृति हुँ ।

मैं निर्मल हुँ 

मैं शीतल हुँ 

मैं चंचल हु 

माँ गंगा की जल की तरह स्वच्छ और पवित्र हूँ ।

मैं शान्त हुँ 

मैं सात्त्विक हुँ

मैं अहिंसक हुँ

बिल्कुल गौतम बुद्ध की तरह भिक्क्षुक हुँ ।

मैं हिन्दू हूँ

मैं मुस्लिम हुँ 

मैं सिख, जैन और ईसाई हूँ 

बिल्कुल सदाबहार स्वतंत्र मुल्क की तरह हुँ ।

मैं वह साँस हुँ

जो मानवता का मूलक और दया का सूचक है 

मैं करुणा हुँ

मैं कल्पना हुँ

मैं कर्तव्य हुँ 

यही सपनों का देश हुँ ।

हाँ, मैं भारत हुँ ।

सिर का मुकुट हिमालय की तरह शौर्य और साहस का घोतक है तो दूसरी तरफ सागर पाँव धोकर अपना साहित्य, संस्कार और सम्मान से गौरवशाली बनाता है ।

जय हिंद, जय भारत ।🇭🇺

वीणा से मिली वाणी 🎻🎻🎻

#ब्रम्हा जी ने हमें #PK बना कर भेजा था। न सभ्यता थी और संस्कृति, न कोई सामाजिक ज्ञान था और भूगोल का पता ठिकाना,  न रसायनों से परहेज था और न ही गणित का दूर दूर तक सम्बन्ध  । मानव #पशुवत्व  विचरण कर रहा था । जगत की रचना तो कर दी लेकिन जब पृथ्वी पर वीरान जंगल-जंगल, पहाड़ी-पहाड़ी, नदियों के तीरे तीरे जानवरों की भांति हमें भटकते हुए देखे तो सृष्टि की रचना नाकाम लग रही थी । तब उन्होंने अपना कमंडल से जल निकला और छिड़का तो माँ सरस्वती का प्रकट हुईं।
आप सभी जानते है कि वीणा माँ शारदा के हाथ मे सदैव रहता है और वीणा और वाणी में केवल दीर्घ इ की मात्रा का फेरबदल है । माता ने वीणा से स्वछंद और मधुर ध्वनि निकाली, पुरे देखने वाले हतप्रभ थे, अवाक रह गए और ऊँगली से तारों पर रगड़ने से निकल रही ध्वनि को सुनकर मन ही मन प्रसन्न हुए और माँ ने  श्रीमुख से स्वर निकाला । इसी का प्रतिफल लोगों पर पड़ा और लोगों का पशुवत्व से मानवत्व जीवन में तब्दील हुआ, जय माँ शारदा 
प्रोफेसर साहब पूरे गाँव में फूलों के शौखिन आदमी है । बगीचे में पूरा दिन खुरपी लेकर लगे रहते है। चम्पा, चमेली, तरह तरह के गुलाब, गेंदा, गेंदी, गुलदाउदी, कामिनी, अड़हुल आदि के फूल बोए है।  यू बात करें तो दुनिया का शायद ही कोई फूल होगा जो उनके बगीचे में नहीं मिलेगा । बक्सर नर्सरी का हर फूल उनके बगीचे में मौजूद है।
लेकिन गाँव में उन उदण्ड लड़को की भी कमी नही हैं, करीमना, सोहना और चिन्टूआ ताक में रहते, जब टाइम मिले फूल तोड़ लेते । दिन में पोरफेसर साहब लड़को से परेशान रहते है तो आधी रात में गाँव औरतों से । इसमें कोई शक नहीं कि नौरात्री में नौ दिन रात्रि जागरण पोरफेसर साहब को करना पड़ता है। रात के बारह एक बजे भी औरतें  अपना काम कर लेती । सुबह होता वही तमाशा 

लेकिन इस बार सरस्वती पूजा में पोरफेसर साहब ने अपना आशियाना बगीचे में ही बना रखा है क्योंकि उनको पता है लड़का लोग इस बार बगीचा ठूठ कर देगा पर उनकी पत्नी(चाची) हीरा  है । गाँव के हर सुख-दुख में शरीक रहती है और अभी हमें तो फूल की जरूरत है वो पूरा कर ही देगी । लड़के दिन में एक बार दंड परनाम कर आते । फूल की फरमाइश पहले ही पुरुब टोला से चिन्टूआ आ मै  चाची से कर रखा है ।
फोर जी के जुग में भी शाम को गाँव के लोगों का बैठकी का मुख्य केंद्र उनका दुआर है । पुरुब टोला से महेंदर जादो, कमेशर और बीरेंदर और दखिन टोला के शशिकात, भीमकाका भी आ जाते है और पौने नौ बजे के समाचार चाय की घुट के साथ सुनते है पर परसो से पता नहीं किरपवा क्यों पहुँच रहा है ।

पोरफेसर साहब को इस बात का डाउट जरूर है कि गाँव में इस साल चार जगह सरस्वती पूजा रखा जा रहा है और कही न कही लड़के बागीचे के तरफ अपना रुख करेंगे । चाची ने पोरफेसर साहब को समझाया पर वे अपनी जिद पर अड़े रहे। किरपावा को पोरफेसर साहव के हर गतिविधि को भांपने के लिए पुरुब टोला से छोड़ा गया है, सरसोती पूजा के तीन दिन फूल का जुगाड़ हो जाए।

इस बार गाँव में दो जगह डीजे आया है और खुशी की बात है कि बसंत ऋतु का आगमन आज से ही होने वाला है । ऋतुओ में बसन्त सबसे प्रिय हर आदमी को लगता है और भगवान श्रीकृष्ण को भी । फूलों के बगीचों से निकल रही खुशबू वातावरण को सुहासित और आनंदित कर देती है तो दुसरी तरफ कोयल की कुक की ध्वनि कानों में पड़ती है तो गणेशवा का लीला देखते बनता है ।

कोयल कु बोलती है तो वो भी कु बोलता है ।

फिर दुबारा कु बोलती है वो भी पुनः बोलता है इस प्रतिस्पर्धा में दोनों अपने अपने जिद पर अड़े रहते है कि मै चुप नहीं रहूंगी तो गणेशवा भी । क्या गजब का समन्वय है एक दूसरे की ….

वर दे वीणा, वादिनी वर दे 

हमें भी कुछ लिखने का श्रय दे । 

आप सभी दोस्तों को बसंत पञ्चमी, सरस्वती पूजा की हार्दिक बधाई ।

काश गर मैं बेटा होती!

काश गर मैं बेटा होती!

माँ के सर  बोझ ना होती

पापा का सरदर्द ना होती

चैन- सुकुन से रह सकती

ये दुनिया ताने ना दे पाती।।

काश गर मैं बेटा होती !

मेरी माँ को ना झुकना पड़ता

डरके समाज में ना जीना होता

उन्मुक्त,आजाद परिंदे सी मैं भी

हर चाहत को पूरा कर पाती ।।

काश गर मैं बेटा होती!

कोई चाल चले या जाल बुने

ये साजिश भी ना सह पाती

माँ सहमी-सहमी रह जाती है

होठों से कुछ ना कह पाती है।।

काश गर मैं बेटा होती,

नित आंखो से नूर बहाती है

सबके ताने सुन रह जाती है

ये जख्म उसे भी न मिलता

उसको भी तो आदर मिलता।।

वो भी गर्व से रह पाती, काश अगर मैं बेटा होती!

कालिंदी पाठक